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रविवार, 31 अक्टूबर 2010

किस प्रकार जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास को प्रभावित करता है ?

हाल के वर्षो में आर्थिक साहित्य में जनसंख्या वृद्धि का अर्थतंत्र पर पड़ने वाले  प्रभावों  को  दो तरह से विवेचित किया गया है -

प्रथम - वचत प्रभाव ,
द्वितीय - निवेश संरचना  प्रभाव,के रूप में -

प्रथम के सन्दर्भ में यह तर्क दिया जाता है कि सतत जनसंख्या वृद्धि से अर्थव्यवस्था में निर्भरता अनुपात में वृद्धि होती है , क्योंकि उच्च प्रजनन दर के साथ वच्चों एवं वृद्धों के आयु समूह की घटती मृत्यु दर से गैर - कार्यकारी जनसंख्या का अनुपात कार्यकारी जनसंख्या के सापेक्ष अधिक हो जाता है जिससे कार्यकारी जनसंख्या द्वारा की गई वचत  गैर - कार्यकारी जनसंख्या के पोषण में खर्च हो जाता है . इसे जनसंख्या वृद्धि का वचत प्रभाव कहा जाता है.
दुसरे अर्थात निवेश प्रभाव के सन्दर्भ में यह तर्क दिया जाता है कि निवेशयोग्य संसाधनों का महत्वपूर्ण हिस्सा अतरिक्त लोगों के गैर-उत्पाद्कीय सुविधाओं कों उपलब्ध करनें में खर्च हो जाता है. यदि जनसंख्या तेजी से न बढ़ रही होती तो इस तरह के अनावश्यक निवेश की जरूरत नहीं पड़ती .
रावर्ट केसन  वचत एवं निवेश प्रभाव कि वैद्यता पर ही संदेह व्यक्त करतें हैं , उनका मानना है कि गरीब देशों में वचत का बड़ा हिस्सा धनाड्यों के एक छोटे से समूह से आता है जिनकी प्रजनन दर बहुत कम होती है . अतः अतरिक्त वच्चों कि उपभोग आवश्यकताएँ वचत को प्रभावित किये विना ही पुरी हो जाती हैं . इस प्रकार अतरिक्त वच्चों कि वचत लागत तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता है.
निवेश प्रभाव के सन्दर्भ में केसन का मानना है कि यह जनसंख्या सिद्धांत एक ऐसे महत्वपूर्ण तथ्य पर कोई विचार ही नहीं करता है कि मूलभूत उपभोग वस्तुओं अर्थात खाद्द्यान  के उत्पादन की संसाधन लागत क्या है ? दीर्घकाल तक एक समाज कृषि उत्पादन को श्रम के प्रयोग के माध्यम से ही बढ़ा सकता है अतेव बढती जनसंख्या के पोषण का मुख्य साधन तो स्वयं जनसंख्या है ऐसी स्थिति में पूंजी कि आवश्यकता होगी वेज गुड्स के उत्पादन में , किन्तु एक ऐसा बिंदु आयेगा जब कृषि उत्पादन बढ़ने के लिए अधिक उत्पादन देने वाली आगतों मे और अधिक निवेश किया जाय, जो विदेशी विनिमय और पूंजी दोनों के लिहाज से खर्चीला सिद्ध होगा . जैसा कि कोल हूबर माडल तर्क करता है कि   धीमी जनसंख्या वृद्धि से श्रम की उत्पादकता बढाने के लिए अधिक पूंजी उपलब्ध होगी क्योंकि कल्याण व्यय काम हो जायेगा. इसी प्रकार केसन तर्क देते  हैं कि कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए जिस विदेशी विनिमय और पूंजी कि अवसकता होती , वह बच जाती. उनका मानना है कि पहले के माडल सिर्फ कल्याण लागत तक ही सीमित हैं , जब कि वास्तविकता यह है कि अतरिक्त पोषण लागत भी बढ़ जाती है. भारत १९6०  के दशक में ही इस स्टेज में पहुँच गया था

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